केंद्रीय बजट सार्वजनिक चर्चा पर हावी रहा जबकि केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए ठीक से उपयोग न की गई राशि के मुद्दे पर कोई जांच नहीं हुई।
हाल ही में केंद्रीय बजट 2023-24 पेश किया गया था। जबकि नई घोषणाएं और विभिन्न क्षेत्रों के लिए बजट का परिव्यय सार्वजनिक चर्चा पर हावी रहा, लेकिन बजट में आवंटित राशि के ठीक से उपयोग नहीं किये के मुद्दे पर कोई जांच नहीं हुई। केंद्र सरकार हर साल केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस), जैसे कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम), समग्र शिक्षा अभियान और मनरेगा के माध्यम से राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) को बड़ी मात्रा में बजट राशि हस्तांतरित करती है। वित्त वर्ष 2016-17 से 2023-24 के दौरान केंद्रीय बजट से राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को संसाधनों के लिए हस्तांतरित राशि का सालाना औसत 6.87 लाख करोड़ रुपये के बराबर है, जो कुल केंद्रीय बजट का करीब 21 प्रतिशत है। इसी अवधि के दौरान इसके अंतर्गत, केंद्र प्रायोजित योजनाओं का औसत वार्षिक हिस्सा करीब 54 प्रतिशत (या केंद्रीय बजट का 11 प्रतिशत) रहा । इस बारे में दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए जाने चाहिए। सबसे पहले, क्या केंद्रीय मंत्रालयों को पता है कि इन सीएसएस फंडों में से वास्तव में राज्यों द्वारा कितना खर्च किया जा रहा है या दूसरे शब्दों में, केंद्रीय मंत्रालयों के पास कितनी विजिबिलिटी है? दूसरा, ऐसी योजनाओं में उपलब्ध फंड की विजिबिलिटी और फंड के उपयोग की गति को कैसे सुधारा जा सकता है।
सीएसएस में फंड के सही उपयोग के लिए अधिक 'विजिबिलिटी' की आवश्यकता क्यों है?
केंद्रीय मंत्रालयों की पारंपरिक एकाउंटिंग राज्यों को दिए गए सभी फंड एडवांसों को 'व्यय' के रूप में रिकॉर्ड कर रही है, चाहे वो एडवांस राज्य, जिला और उप-जिला स्तरों पर अप्रयुक्त तौर पर पड़े हो। यह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को प्रदान किए गए फंड की स्पष्ट विजिबिलिटी में बाधा डालता है। राज्य सरकारों की एकाउंटिंग भी एक समान सीमा ही होती है जहां इम्प्लीमेंटिंग एजेंसियों, जैसे कि राज्य शिक्षा समितियों या जिला स्वास्थ्य समितियों को दिए गए फंड को व्यय के रूप में दर्ज किया जाता है। ऐसे में, सरकारी व्यवस्था दिए गए फंड के वास्तविक उपयोग की सीमा और अप्रयुक्त रूप से पड़े फंड के अनुपात को पूरी तरह से मापने में असमर्थ है। फंड कैसे खर्च किया जाता है या फंड की सीमित 'विजिबिलिटी' इसके बारे में मुख्य रूप से इम्प्लीमेंटेशन के विभिन्न स्तरों पर खंडित और अधूरी जानकारी के कारण यह चुनौती सामने आई है।
इसके अलावा, कई क्षेत्रों में क्रियांवयन की निचली इकाइयों को मिले फंड एडवांस के व्यय के विवरण (अर्थात, व्यय के रिकॉर्ड) काफी देर से वेरिफाई होते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब एक जिला स्वास्थ्य सोसायटी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और अन्य स्वास्थ्य उप-केंद्रों (जो एनएचएम के तत्वावधान में सेवाएं प्रदान करते हैं) को फंड देती है, तो ये सेवा प्रदाता संस्थान फंड के व्यय का विवरण या उपयोग का प्रमाण पत्र देते हैं। जिला स्वास्थ्य समिति इस एडवांस फंड के व्यय के रिकॉर्ड को मिलाने के लिए काफी समय लेती है, कभी-कभी तो इन रिकॉर्डों को वेरिफाई करने में महीनों लग जाते हैं।
यह पुरे व्यवस्था में अप्रयुक्त राशि (फ्लोट) की समस्या देखि जा सकती है, यानी योजना के क्रियांवयन के विभिन्न स्तरों पर अप्रयुक्त फंड का अस्तित्व। यह अनुमान लगाया गया है यदि केंद्रीय मंत्रालयों को उनकी योजनाओं में विभिन्न स्तरों पर अप्रयुक्त पड़ी धनराशि पर पूर्ण विजिबिलिटी प्राप्त हो तो केंद्र सरकार के ब्याज की लागत को कम से कम 10,000 करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पूर्ण विजिबिलिटी से केंद्र सरकार के हर साल उधार ली जाने वाली वाली राशि में उल्लेखनीय कमी आएगी।
एक ऐसा मामला एनएचएम के तहत फंड के वितरण का है। एनएचएम की 14वीं आम समीक्षा मिशन रिपोर्ट 2021 में प्रकाशित हुई थी और इसमें फंड के वितरण में देरी और राज्यों में फंड के कम उपयोग के मुद्दों को उठाया गया था। राज्य के कोषागारों से राज्य स्वास्थ्य समितियों को एनएचएम फंड देने में बिहार, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 60 दिनों से लेकर मिजोरम और पुडुचेरी में 150 दिनों तक देरी हुई। इन राज्यों में राज्य स्वास्थ्य समितियों से जिला स्वास्थ्य समितियों को भी फंड वितरण में वैसी ही देरी हुई। इसके परिणामस्वरूप उन इम्प्लीमेंटिंग एजेंसियों और वेंडरों को भी पैसे देने में देरी हुई, जो एनएचएम के तहत दवाएं और अन्य आवश्यक वस्तुएं प्रदान करते हैं। इसने आशा कार्यकर्ताओं के इंसेंटिव को भी प्रभावित किया, कुल मिलाकर स्वास्थ्य सेवाओं के समय पर, प्रभावी और गुणवत्तापूर्ण वितरण में बाधा उत्पन्न हुई। अंततः, पूरी बजट राशि खर्च नहीं की जा सकी, जिससे सिस्टम में अप्रयुक्त राशि या 'फ्लोट' रह गया।
इसे देखते हुए, केंद्र सरकार ने जुलाई 2021 में केंद्र प्रायोजित योजनाओं- सीएसएस के लिए सिंगल नोडल एजेंसी/सिंगल नोडल अकाउंट (SNA) की व्यवस्था की शुरुआत की। इसके लिए प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश को राज्य में प्रत्येक सीएसएस के लिए केवल एक नोडल बैंक अकाउंट बनाने और मेन्टेन करने की आवश्यकता होती है, जिससे फंड के केंद्रीय शेयर के प्रवाह और उपयोग पर, राज्यों द्वारा एक समान योगदान और व्यवस्था में अप्रयुक्त धन के मामले में और अधिक विजिबिलिटी मिल सके।केंद्रीय मंत्रालय राज्यों के पास उपलब्ध धन (यानी, उन्हें दिए गए धन के उपयोग की सीमा) और सीएसएस के लिए राज्यों द्वारा दिए गए अनुदान को मिलाने के लिए और अधिक विजिबिलिटी की उम्मीद कर रहा है। यह संभावित रूप से केंद्रीय मंत्रालयों को 'सही समय पर' फंड देने की दिशा में ले जाएगा और विभिन्न सीएसएस के लिए बजटीय संसाधनों के आवंटन में भी सुधार करेगा।
आगे का रास्ता
राजकोषीय शासन व्यवस्था में फ्लोट की समस्या ने कई मुद्दों को जन्म दिया है जैसे कि केंद्र सरकार के उच्च ब्याज का बोझ जो आंशिक रूप से घटाया जा सकता है, देर से मिलनेवाला फंड और मिले फंड का उपयोग, सही जवाबदेही न कर पाना, और महत्वपूर्ण विकास क्षेत्रों में पर्याप्त व्यय न कर पाना। जाहिर है, इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए सरकार के तीनों स्तरों पर समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है। चल रहे सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन सुधार जैसे कि एसएनए मॉडल की शुरूआत और केंद्र सरकार द्वारा शुरू किए गए व्यय नियंत्रण उपायों में इस समस्या को संबोधित करने की क्षमता है। हालाँकि, यह तब तक पर्याप्त नहीं हो सकता जब तक कि राज्य सरकारें व्यय की ट्रैकिंग, व्यय के रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण और सीएसएस के लिए अनुदानों को सही समय पर देना शुरू नहीं करती हैं। इस तरह के उपाय उपलब्ध फंड के सही उपयोग और दुर्लभ सार्वजनिक वित्तीय संसाधनों के प्रबंधन में और अधिक पारदर्शिता व दक्षता के साथ मार्ग को और प्रशस्त कर सकते हैं।